हमारे सनातन इतिहास में पांडवों के सबसे बड़े भाई कर्ण को दानवीर की संज्ञा दी गई है। जिसे जन्म से लेकर महाभारत के युद्ध से पहले तक ये पता नहीं था कि वो पांच पांडवों का ज्येष्ठ भ्राता है। दुर्योधन द्वारा दिए गए सम्मान के बदले कर्ण हमेशा उसका ऋणी रहा, परन्तु सत्य वो भी जानता था, इस कर्तव्य निष्ठा के विपरित कर्ण की एक छवि और थी, वो थी महादानी की। जो भी कर्ण के द्वार तक आया, खाली हाथ नहीं लौटा, यहां तक की जो कवच और कुंडल उसके जन्म के समय के साथी थे वो भी उसने दान कर दिए थे। लेकिन जब मृत्यु पर्यन्त कर्ण स्वर्ग लोक में पहुंचा तो उसे भोजन के लिए सोना दिया गया। उसने कहा कि भोजन के लिए तो अन्न की आवश्यकता होती है, सोना कोई नहीं खा सकता। उसे जवाब मिला कि पृथ्वी लोक में पूरे जीवन उसने सिर्फ सोना ही दान किया और पितृो को एक बार भी पानी नहीं पिलाया। कर्ण तुरंत पलट कर बोला कि उसे मालूम ही नहीं था कि उसके पूर्वज कौन है? किन्हें जल पिलाता, ये तर्क स्वीकार कर लिया गया और कर्ण को 16 दिन के लिए पृथ्वी लोक भेजा गया। जहां उसने पूर्णिमा से लेकर अमावस्या तक प्रत्येक दिन श्राद्ध कर्म किया और इसी पक्ष को श्राद्ध पक्ष के रूप में जाना गया।
जब कर्ण को मालूम चला श्राद्ध का महत्व
08
Mar