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पर्व जैसी कीजिए तैयारी! बिन श्रद्धा नहीं हितकारी!

राह चलते आपका रूमाल गिर गया और किसी ने उठाकर आपको दे दिया तो आप कहेंगे धन्यवाद। यह धन्यवाद आपने क्यों दिया? क्योंकि जिस अजनबी ने रूमाल उठाकर आपको दिया उससे आपको कोई अपेक्षा नहीं थी। आप ऐसपेक्ट नहीं करते थे। लेकिन अगर आपका रूमाल गिरता है और पत्नी उठाकर आपको देती है तो आप उसको धन्यवाद नहीं कहते! बल्कि अगर पत्नी ने उठाकर नहीं दिया तो उलटे आप उस पर क्रोध करेंगे। कहेंगे दिखता नहीं रूमाल नीचे घिर गया, उठा नहीं सकती। क्यों? क्योंकि यहां आपको अपेक्षा है कि पत्नी तो उठाकर देगी ही। अजनबी से आप एसपेक्ट नहीं करते पर अपनो से तो उम्मीद करते हैं। यही बात हमारे पितरों को लेकर भी कही जा सकती है। पितर हमारे अपने हैं, हमने उनसे ही यह जीवन प्राप्त किया, हमारी रगो में उनका ही खून दौडता है, हम उनकी ही परंपरा को आगे बढा रहे हैं, उनके ही वंश की वृद्धि हम कर रहे हैं, उनके ही अंश है हम। तो निश्चय ही पितरों को भी हमसे अपेक्षाएं हमसे ऐसपेक्टेशन होगी ही होगी। और अगर उनकी ऐसपेक्टेशन पूरी नहीं होती है तो उनका नाराज होना नेच्युरल है। और देखिए, सावन में हम देवाधिदेव की पूजा-अर्चना करते हैं और भाद्रपद में तीज-त्यौहारों की धूम रहती है। फिर आश्विन माह का कृष्ण पक्ष आता है जो हमें अपने पितरों की सेवा उनका आदर-सत्कार करने का अवसर प्रदान करता है। इसके बाद शारदीय नवरात्रा, विजयादशमी और दीपावली के पंच पर्वो की श्रृंखला आरंभ हो जाती है। यानी देवताओं ने भी यह व्यवस्था की है कि आप पहले अपने पितरों से आशीष लें फिर देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करें। पितृ प्रसन्न है तो देवता भी आशीष देते हैं। इतने विश्ष्टि, इतने माहत्मय वाले श्राद्ध पक्ष की तैयारी हमें वैसी ही करनी चाहिए जैसे किसी पर्व पर करते हैं। ब्राह्मणों को परोसे जाने वाले भोजन को स्वादिष्ट बनाएं, मनुहार कर ब्राह्मणों को तृप्त करें। ब्राह्मणों को भोजन पश्चात दक्षिणा देकर उनके चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद प्रापत करें। पितरों से संबंधी बातों का स्मरण करें और प्रसन्न मन से उनको प्रणाम कर कहें कि हमने अपनी श्रद्धा से श्राद्ध कर्म किया है कुछ भूल-चूक हुई हो तो क्षमा कर हमारी भावनाओं को स्वीकार करें। ऐसी श्रद्धा से किए गए श्राद्ध से पितर तृप्त होकर अपने लोक चले जाते हैं।

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