हमारा देष जो अपनी संस्कृति और सभ्यता के लिए विष्व में अलग ही पहचान रखता है। जहां श्रवण कुमार जैसे पुत्र ने अपने अंधे माता-पिता की सेवा में अपना जीवन बिताया, उसी तरह भगवान श्रीराम ने अपनी माता की आज्ञा पर चैदह वर्ष का वनवास स्वीकार कर लिया और भगवान श्रीगणेष ने अपनी माता-पिता की परिक्रमा कर उन्हें ब्रह्माण्ड रूप मान लिया। ऐसे देष में आज ऐसी कई संतानें है जो अपने बूढ़े माता-पिता की सेवा करने के बजाय उनको घर से बाहर निकाल देते है या ऐसे हालात पैदा कर देते है कि वे स्वयं ही घर छोड़ने के लिए विवश हो जाएं।
इनमें कुछ माता-पिता भाग्यशाली होते है जिन्हे सिर छिपाने, जीवन के बाकी दिन गुजारने के लिए वृद्धाश्रम में जगह मिल जाती हैं। पर ये बहुत ही दुखद है
अब तो हरिद्वार में अपने माता-पिता को वहां ‘गंगा के भरोसे’ छोड़ आने में कोई हिचक नहीं होती। सोच यह है कि इनके मरणोपरान्त दाह संस्कार, श्राद्ध कर्म पर खर्च करने का पैसा बचेगा। गंगा इन्हें यों ही मोक्ष दे देगी। ऐसे अपनों द्वारा तिरस्कृत वृद्धजनों का जीवन यापन कैसे होता होगा? इसकी कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते है।
दर्षकों, माता-पिता और पूर्वज आपसे सोना, चांदी और रत्न नहीं चाहते, उन्हें सम्पति, व्यवसाय से भी कुछ नहीं चाहिए, वे तो आपसे श्रद्धा भाव से स्मरण चाहते है और मरणोपरांत विधि-विधान शास्तोत्र पद्धति से श्राद्ध कर्म की पूर्ति चाहते है। इसलिए श्राद्ध कर्तव्य है, पुण्य है, धर्म है, इसलिए पितृ पक्ष में श्राद्ध का विषेष महत्व है।
माता-पिता को बोझ समझ कर जीते जी कर रहे हैं श्राद्ध
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08
Mar