क्या आप जानते हैं कि घर, बाहर, आॅफिस में, इधर-उधर दिन भर में, सुबह से रात सोने तक कितना बोलते हैं आप ? चैबीस घंटों में कितने हजार शब्द आपके मुंह से पानी की तरह बह जाते हैं? लेकिन यह भी सच है कि बोले बगैर, सम्वाद किए बगैर भी काम नहीं चलता। इसके बावजूद कुछ कह देना इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कुछ नहीं कहना। बोलना यदि कला है, तो मौन सर्वश्रेष्ठ कला है। भारत में अनेक ऋषि-मुनि हुए, जिनमें से अनगिनत ने मौन रहकर पूरा जीवन व्यतीत किया। कई साधक वर्ष, दो वर्ष, पंद्रह वर्ष तथा इससे भी अधिक मौन रहने की प्रतिज्ञा करते हैं। मौन का रहस्य इतना गहरा है कि इसे मौन धारण करने वाला ही समझ सकता है। कहना बहुत थोड़ा होता है। नहीं कहना बहुत ज्यादा होता है। जो परम सत्य है, उसे कह नहीं सकते। वेेदांती उसे अनिर्वचनीय तथा जैन अवक्तव्य कहते हैं। यदि बोलकर बातें की जा सकती हैं, तो चुप रहकर उससे भी ज्यादा बातें होती हैं। आंखें बातें करती है। मौन की भाषा शब्दों की भाषा से किसी भी रूप में कमजोर नहीं होती, बस उसे समझने वाला चाहिए। जिस प्रकार शब्दों की भाष-विज्ञान होता है, उसी प्रकार मौन का भी भाषा विज्ञान होता है। किन्तु वह किसी शास्त्र में लिखा हुआ नहीं होता। मौन का भाषा-विज्ञान भी मौन ही होता है। इसे समझा तो जा सकता है, पर समझाया नहीं जा सकता।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के वचन –
मौन अनंत की भाषा है। मौन का आध्यात्मिक महत्व तो है ही, व्यावहारिक महत्व भी कम नहीं है।
लोग मौन को कायरता का सूचक समझ बैठे हैं-
वे सोचते हैं कि जो लोग डरते हैं, वे मौन रहते हैं और जो लोग नहीं डरते, वे लोग बेधड़क होकर बोलते हैं। इसलिए वे सत्य बोलते हैं। सही मायने में मौन वार्तालाप की एक महान कला है। जैसे घोंसला सोती हुई चिड़िया को आश्रय देता है, वैसे ही मौन तुम्हारी वाणी को आक्षय देता हैै। यह विवेक रखना आवश्यक है कि कहां मौन रहना चाहिए और कहां बोलना चाहिए। इस सच से इंकार नहीं कि हमारी वाणी अक्सर हमें धोखा दे जाती है। हम कुछ का कुछ कह डालते हैं, बाद में पछताते हैं और उसका खामियाजा भुगतते हैं।
मौन हमारा ऐसा मित्र है, जो कभी धोखा नहीं देता-
मौन वह दर्पण है, जो हमारा वास्तविक चित्र, दिखाता है। मौन जितना कह देता है, शायद उतना वाणी नहीं का पाती। राम के साथ लक्ष्मण जब वन को जाते हैं, तो उर्मिला का मौन ही उनके कत्र्तव्यों का निर्वहन करता नजर आता है। लेकिन, मौन कोई साधारण चीज नहीं है और न ही वह हर मनुष्य के बस की बात है। मौन का अर्थ कर्म का अभाव, जड़ता, अकर्मण्यता या आलस भाव नहीं है। वह विचार या तर्क-वितर्क से खाली रहना नहीं है। गांधीजी ने कहा था कि क्रोध को जीतने में मौन जितना सहायक है, उतना और कोई नहीं है। कभी लगता है कि मौन जितना कुछ कह देता है, उतना वाणी भी नहीं कह पाती।